रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइज़-ए-मोहतरम रह गए
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तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
वो ख़ानुमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
यूँ इंतिक़ाम तुझ से फ़स्ल-ए-बहार लेंगे
क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात भी क्या चीज़ है 'फ़ना'
ग़ैरत-ए-अहल-ए-चमन को क्या हुआ
तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
यूँ दिखाता है आँखें हमें बाग़बाँ
गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर