तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
अब के किसी बे-नाम से मौसम की तरह आ
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अंधेरों को निकाला जा रहा है
वो जाने कितना सर-ए-बज़्म शर्मसार हुआ
वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए
मुझे प्यार से तिरा देखना मुझे छुप छुपा के वो देखना
मुझे रुतबा-ए-ग़म बताना पड़ेगा
रिंद जन्नत में जा भी चुके
डूबने वाले की मय्यत पर लाखों रोने वाले हैं
यूँ दिखाता है आँखें हमें बाग़बाँ
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
कोई पाबंद-ए-मोहब्बत ही बता सकता है
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है