दिल से अगर कभी तिरा अरमान जाएगा
घर को लगा के आग ये मेहमान जाएगा
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मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए
जब सफ़ीना मौज से टकरा गया
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
साक़िया तू ने मिरे ज़र्फ़ को समझा क्या है
ग़ैरत-ए-अहल-ए-चमन को क्या हुआ
सब होंगे उस से अपने तआरुफ़ की फ़िक्र में
बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
यूँ इंतिक़ाम तुझ से फ़स्ल-ए-बहार लेंगे
रिंद जन्नत में जा भी चुके
तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
वो ख़ानुमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद