दुनिया पे ऐसा वक़्त पड़ेगा कि एक दिन
इंसान की तलाश में इंसान जाएगा
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तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
मौजों के इत्तिहाद का आलम न पूछिए
रहता है वहाँ ज़िक्र-ए-तुहूर-ओ-मय-ए-कौसर
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद
इक तुझ को देखने के लिए बज़्म में मुझे
हम आगही-ए-इश्क़ का अफ़्साना कहेंगे
तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
कोई पाबंद-ए-मोहब्बत ही बता सकता है
तिरे वादों पे कहाँ तक मिरा दिल फ़रेब खाए
आज उस से मैं ने शिकवा किया था शरारतन
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
अंधेरों को निकाला जा रहा है