दुनिया-ए-तसव्वुर हम आबाद नहीं करते
याद आते हो तुम ख़ुद ही हम याद नहीं करते
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दिल से अगर कभी तिरा अरमान जाएगा
मौजों के इत्तिहाद का आलम न पूछिए
तिरे वादों पे कहाँ तक मिरा दिल फ़रेब खाए
तर्क-ए-तअल्लुक़ात को इक लम्हा चाहिए
हम आगही-ए-इश्क़ का अफ़्साना कहेंगे
ग़ैरत-ए-अहल-ए-चमन को क्या हुआ
मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए
सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
आज उस से मैं ने शिकवा किया था शरारतन
रहता है वहाँ ज़िक्र-ए-तुहूर-ओ-मय-ए-कौसर
जब सफ़ीना मौज से टकरा गया