तर्क-ए-तअल्लुक़ात को इक लम्हा चाहिए
लेकिन तमाम उम्र मुझे सोचना पड़ा
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झूटी ही तसल्ली हो कुछ दिल तो बहल जाए
ग़म से नाज़ुक ज़ब्त-ए-ग़म की बात है
कोई पाबंद-ए-मोहब्बत ही बता सकता है
इक तुझ को देखने के लिए बज़्म में मुझे
सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं
दुनिया पे ऐसा वक़्त पड़ेगा कि एक दिन
वो ख़ानुमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे
मुझे प्यार से तिरा देखना मुझे छुप छुपा के वो देखना
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद
दुनिया-ए-तसव्वुर हम आबाद नहीं करते