बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए
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मैं चला आया तिरा हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल ले कर
सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं
इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया
मुझे रुतबा-ए-ग़म बताना पड़ेगा
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
वो जाने कितना सर-ए-बज़्म शर्मसार हुआ
जब मेरे रास्ते में कोई मय-कदा पड़ा
दुनिया पे ऐसा वक़्त पड़ेगा कि एक दिन
तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ