अब उस मक़ाम पे है मौसमों का सर्द मिज़ाज
कि दिल सुलगने लगे और दिमाग़ जलने लगे
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हूँ वारदात का ऐनी गवाह मैं मुझ से
शौक़ आसूदा-ए-तहलील-ए-मुअम्मा न हुआ
क्या बताएँ क्या कल शब आख़िरी पहर देखा
यूँ भी किया है हम ने हक़-ए-दिलबरी अदा
आम है इज़्न कि जो चाहो हवा पर लिख दो
ये क्या हुआ कि सभी अब तो दाग़ जलने लगे
तुझे ख़बर ही नहीं है ये क़िस्सा-ए-कोताह
शौक़-ए-बेहद ने किसी गाम ठहरने न दिया
उन्हें गुमाँ कि मुझे उन से रब्त है 'सालिम'
हैं इन में बंद किसी अहद-ए-रस्त-ख़ेज़ के अक्स
शिकस्त-ए-आसमाँ हो जाऊँगा मैं