अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
इसी लिए है ख़फ़ा मेरा नाख़ुदा मुझ से
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परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है
मैं अपने-आप से बरहम था वो ख़फ़ा मुझ से
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के