परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
तुझे मैं ने फ़क़त चाहा नहीं है
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ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की
जब तक चराग़-ए-शाम-ए-तमन्ना जले चलो
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
मुझ पे हो जाए तिरी चश्म-ए-करम गर पल भर
बात अपनी अना की है वर्ना
हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम
हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता
मैं शायद तेरे दुख में मर गया हूँ