हर्फ़ जैसे हो गए सारे मुनाफ़िक़ एक दम
कौन से लफ़्ज़ों में समझाऊँ तुम्हें दिल का पयाम
Faiz Ahmad Faiz
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मैं अपने-आप से बरहम था वो ख़फ़ा मुझ से
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
शाम कहती है कोई बात जुदा सी लिक्खूँ
तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है
बात अपनी अना की है वर्ना
नहीं है अब कोई रस्ता नहीं है
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के