बात अपनी अना की है वर्ना
यूँ तो दो हाथ पर किनारा है
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परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
आँख को जकड़े थे कल ख़्वाब अज़ाबों के
शाम कहती है कोई बात जुदा सी लिक्खूँ
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता
हम से तंहाई के मारे नहीं देखे जाते
दश्त-ए-वहशत ने फिर पुकारा है
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
तुझ को खो कर मुझ पर वो भी दिन आए
मैं शायद तेरे दुख में मर गया हूँ