तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की
मैं अपनी ज़ात से इंकार किस तरह करता
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शाम कहती है कोई बात जुदा सी लिक्खूँ
हयात को तिरी दुश्वार किस तरह करता
ये ज़मीं ख़्वाब है आसमाँ ख़्वाब है
अज़ीज़ मुझ को हैं तूफ़ान साहिलों से सिवा
तुझ को खो कर मुझ पर वो भी दिन आए
परस्तिश की है मेरी धड़कनों ने
सौत क्या शय है ख़ामुशी क्या है
ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
नहीं है अब कोई रस्ता नहीं है
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
बात अपनी अना की है वर्ना