अल-जजहनी, आशुफ़्तगी आमादगी
रात भर काले सवालों के नगर में घूम फिर कर
सुब्ह अपने आप में जो लौट आया
एक बोसीदा इमारत का कोई कतबा है वो
और अब
यूँही अपने आप में सिमटा हुआ रहता है वो
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सलीब-ए-मौजा-ए-आब-ओ-हवा पे लिक्खा हूँ
अपनी आँखों के हिसारों से निकल कर देखना
नजात
मौसम
आँखों में मौज मौज कोई सोचने लगा
सोच भी उस दिन को जब तू ने मुझे सोचा न था
तआ'क़ुब
न पानियों का इज़्तिरार शहर में
ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे
हर नए मोड़ धूप का सहरा
नज़्म
सब्ज़ आग़ाज़ से सुर्ख़ अंजाम तक