ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए
यूँ न शम्ओं को किसी दहलीज़ पर रख कर बुझा
Anwar Masood
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Rahat Indori
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Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Gulzar
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बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने
होने वाला था इक हादसा रह गया
अपनी पहचान कोई ज़माने में रख
खिड़कियों पर मल्गजे साए से लहराने लगे
धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा
शहर में जीना है चलना दो-रुख़ी तलवार पर
कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला
मंज़र अजब था अश्कों को रोका नहीं गया
पौ फटी एक ताज़ा कहानी मिली
दिन को थे हम इक तसव्वुर रात को इक ख़्वाब थे
इस सियह-ख़ाने में तुझ को जागना है रात भर