वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है
डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं
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दर्द के चेहरे बदल जाते हैं क्यूँ
धूप छूती है बदन को जब 'शमीम'
मैं तो लम्हात की साज़िश का निशाना ठहरा
हिसार-ए-ज़ात से कट कर तो जी नहीं सकते
ग़ज़लों में अब वो रंग न रानाई रह गई
जो ख़ुद पे बैठे बिठाए ज़वाल ले आए
हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख
हैं राख राख मगर आज तक नहीं बिखरे
सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं
अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम'
झूट सच में कोई पहचान करे भी कैसे