नहीं समझी थी जो समझा रही हूँ
नहीं समझी थी जो समझा रही हूँ
अब उलझी हूँ तो खुलती जा रही हूँ
बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी
मैं अपने क़द को छोटा पा रही हूँ
उमँड आया है शोर औरों के घर से
दरीचे खोल के पछता रही हूँ
हुजूम इतना कि चेहरे भूल जाऊँ
बिसात-ए-ज़ात को फैला रही हूँ
ये मंज़र पूछते हैं मुझ से अक्सर
कहाँ से आई हूँ क्यूँ जा रही हूँ
अगर सच है तो फिर साबित करो तुम
मैं अपने आप को झुटला रही हूँ
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