सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
किस का दुख था मेरे जैसा भूल गई
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जाता है जो घरों को वो रस्ता बदल दिया
नहीं समझी थी जो समझा रही हूँ
मेरी बेटी चलना सीख गई
क़ुर्बतों में फ़ासले कुछ और हैं
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था
सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं
पूरी न अधूरी हूँ न कम-तर हूँ न बरतर
बिछड़ रहा था मगर मुड़ के देखता भी रहा
पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
मैं ने पहुँचाया उसे जीत के हर ख़ाने में