क़ुर्बतों में फ़ासले कुछ और हैं
क़ुर्बतों में फ़ासले कुछ और हैं
ख़्वाहिशों के ज़ाविए कुछ और हैं
सुन रहे हैं कान जो कहते हैं सब
लोग लेकिन सोचते कुछ और हैं
रहबरी अब शर्त-ए-मंज़िल कब रही
आओ ढूँडें रास्ते कुछ और हैं
ये तो इक बस्ती थके लोगों की है
राह में जो लुट गए कुछ और हैं
मिल रहे हैं गरचे पहले की तरह
वो मगर अब चाहते कुछ और हैं
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