रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
बंद आँखों में उस का चेहरा रहता है
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अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था
आख़िरी लफ़्ज़
रुका जवाब की ख़ातिर न कुछ सवाल किया
जाता है जो घरों को वो रस्ता बदल दिया
मनाज़िर ख़ूब-सूरत हैं
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
मैं टूट कर उसे चाहूँ ये इख़्तियार भी हो
सुन रहे हैं कान जो कहते हैं सब
आँखों में न ज़ुल्फ़ों में न रुख़्सार में देखें
रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं