अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
दुआ को फिर भी नहीं देर कुछ असर में लगी
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और कोई नहीं है उस के सिवा
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है
क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं
ज़ख़्मी उँगलियों से एक नज़्म
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है