सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
वगरना थक के कहीं तो ठहर ही जाना था
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मनाज़िर ख़ूब-सूरत हैं
रुका जवाब की ख़ातिर न कुछ सवाल किया
मैं टूट कर उसे चाहूँ ये इख़्तियार भी हो
क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं
अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
कोई नहीं है मेरे जैसा चारों ओर
वो इक लम्हा
मौसम की पहली बारिश