बिछड़ रहा था मगर मुड़ के देखता भी रहा
मैं मुस्कुराती रही मैं ने भी कमाल किया
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मैं ने माँ का लिबास जब पहना
मनाज़िर ख़ूब-सूरत हैं
मैं टूट कर उसे चाहूँ ये इख़्तियार भी हो
किस से बिछड़ी कौन मिला था भूल गई
कब उस की फ़त्ह की ख़्वाहिश को जीत सकती थी
नज़्म
बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है
मौसम की पहली बारिश