फिर एक शोला-ए-पुर-पेच-ओ-ताब भड़केगा
कि चंद तिनकों को तरतीब दे रहा हूँ मैं
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फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
जो शुआ-ए-लब है मौज-ए-नौ-बहार-ए-नग़्मा है
कज-कुलाही की अदा याद आई
तेरी आँखों में जो नशा है पज़ीराई का
शे'र कहने का मज़ा है अब तो
मेरा साक़ी है बड़ा दरिया-दिल
एक हुस्न-फ़रोश लड़की के नाम
अपने अंजाम से डरता हूँ मैं
फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
ज़बान रक़्स में है और झूमता हूँ मैं
अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ