अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूँ
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स्वाँग अब तर्क-ए-मोहब्बत का रचाया जाए
तर्क-ए-तअल्लुक़ात ख़ुद अपना क़ुसूर था
एक नज़्म
शादाँ न हो गर मुझ पे कड़ा वक़्त पड़ा है
इश्क़ फ़ानी न हुस्न फ़ानी है
फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी
फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
तेरी आँखों में जो नशा है पज़ीराई का
नज़्म
किस को है हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद का दावा देखें
मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ