एक नज़्म

ब-ज़ाहिर अजनबी हो तुम

मगर बोसों की बे-कैफ़ी बताती है

कि ये वो ज़हर है चक्खा है जिस को बार-हा मैं ने

न जाने जज़्ब है मेरे लबों में कितने रुख़्सारों की कड़वाहट

ये सब ख़म्याज़ा है

उस बोसा-ए-अव्वल का दिल भूला नहीं जिस की हलावत को

मैं उस को बार-हा समझा चुका हूँ

माज़ी-ए-मरहूम का मातम तो कर सकते हैं, वापस ला नहीं सकते

मगर दिल, दिल है इस को कौन समझाए

यक़ीं है आज तक उस लम्हा-ए-अव्वल की इस को बाज़याबी का

असीर-ए-वहम है इतना

गुमाँ होने लगा है रेग-ए-सहरा पर भी पानी का

इसे दीवानगी कह लो

फ़राज़-ए-तिश्नगी समझो

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