हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
तमाम उम्र हम अपने ही घर में क़ैद रहे
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वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में
किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत
एक सीता की रिफ़ाक़त है तो सब कुछ पास है
ख़फ़ा है गर ये ख़ुदाई तो फ़िक्र ही क्या है
ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है
कभी ख़िरद कभी दीवानगी ने लूट लिया
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
मुद्दत की तिश्नगी का इनआ'म चाहता हूँ
क्या जुर्म हमारा है बता क्यूँ नहीं देते
वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं