इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
चोट लगती है कहीं दर्द कहीं होता है
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Allama Iqbal
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Gulzar
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दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
कभी ख़िरद कभी दीवानगी ने लूट लिया
हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है
कुछ सोच के परवाना महफ़िल में जला होगा
ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है
जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शाँ होती है
क्या जुर्म हमारा है बता क्यूँ नहीं देते
वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए