जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
क़यामत वही तो उठाए हुए हैं
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किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत
मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
गुमशुदगी ही अस्ल में यारो राह-नुमाई करती है
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
आसान नहीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा भी
इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
एक सीता की रिफ़ाक़त है तो सब कुछ पास है
तेज़ जब ख़ंजर-ए-बेदाद किया जाएगा
उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया
ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं