फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
फ़स्ल गुल आई है ख़िज़ाँ-बर-दोश
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समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए
तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शाँ होती है
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है
क़दम शबाब में अक्सर बहकने लगता है
गुमराह कह के पहले जो मुझ से ख़फ़ा हुए
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है