सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
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चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है
इश्क़ में हर नफ़स इबादत है
ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
वफ़ा नज़र नहीं आती कहीं ज़माने में
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए
आसान नहीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा भी
हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'
गुमराह कह के पहले जो मुझ से ख़फ़ा हुए
किसी का घर जले अपना ही घर लगे है मुझे
वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में