समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है
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ख़फ़ा है गर ये ख़ुदाई तो फ़िक्र ही क्या है
रात का नाम सवेरा ही सही
ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया
हमारे अहद का मंज़र अजीब मंज़र है
इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
क़दम शबाब में अक्सर बहकने लगता है
कोई बतलाए कि ये तुर्फ़ा तमाशा क्यूँ है
इक शगुफ़्ता गुलाब जैसा था
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
लहू की मय बनाई दिल का पैमाना बना डाला
कभी ख़िरद कभी दीवानगी ने लूट लिया