ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को
हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ़्तर है
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उस से बढ़ कर किया मिलेगा और इनआम-ए-जुनूँ
तेज़ जब ख़ंजर-ए-बेदाद किया जाएगा
गुमराह कह के पहले जो मुझ से ख़फ़ा हुए
जो ख़त है शिकस्ता है जो अक्स है टूटा है
उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में
मुद्दत की तिश्नगी का इनआ'म चाहता हूँ
मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने 'हफ़ीज़'