उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
मेरा न हो सका वो किसी का तो हो गया
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तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शाँ होती है
मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने 'हफ़ीज़'
पैग़ाम ईद
हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
इश्क़ में हर नफ़स इबादत है
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है