कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
दुनिया है तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर नहीं है
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Jaun Eliya
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हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है
किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत
उस से बढ़ कर किया मिलेगा और इनआम-ए-जुनूँ
क्या जुर्म हमारा है बता क्यूँ नहीं देते
गुमशुदगी ही अस्ल में यारो राह-नुमाई करती है
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
भागते सायों के पीछे ता-ब-कै दौड़ा करें
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
जो नज़र से बयान होती है
जब भी तिरी यादों की चलने लगी पुर्वाई
ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं