वफ़ा नज़र नहीं आती कहीं ज़माने में
वफ़ा का ज़िक्र किताबों में देख लेते हैं
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जो नज़र से बयान होती है
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं
उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
पैग़ाम ईद
ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को
कोई बतलाए कि ये तुर्फ़ा तमाशा क्यूँ है
आसान नहीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा भी
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है