मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
मिरा क़िस्सा निहायत मुख़्तसर है
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इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
किसी का घर जले अपना ही घर लगे है मुझे
कुछ सोच के परवाना महफ़िल में जला होगा
इश्क़ में हर नफ़स इबादत है
हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है
पैग़ाम ईद
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
रात का नाम सवेरा ही सही
क्या जुर्म हमारा है बता क्यूँ नहीं देते
हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'
आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें
समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम