मिरे बुत-ख़ाने से हो कर चला जा काबे को ज़ाहिद
ब-ज़ाहिर फ़र्क़ है बातिन में दोनों एक रस्ते हैं
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बुरा ही क्या है बरतना पुरानी रस्मों का
मिज़्गाँ हैं ग़ज़ब अबरू-ए-ख़म-दार के आगे
साथ रहते इतनी मुद्दत हो गई
ज़ाहिद शराब-ए-नाब हो या बादा-ए-तुहूर
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
दिल है तो तिरे वस्ल के अरमान बहुत हैं
कहीं मरने वाले कहा मानते हैं
आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
लुट गया वो तिरे कूचे में धरा जिस ने क़दम
जब न था ज़ब्त तो क्यूँ आए अयादत के लिए
बिगड़ जाते थे सुन कर याद है कुछ वो ज़माना भी
न आ जाए किसी पर दिल किसी का