बुरा ही क्या है बरतना पुरानी रस्मों का
कभी शराब का पीना भी क्या हलाल न था
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शब-ए-विसाल ये कहते हैं वो सुना के मुझे
अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
जब न था ज़ब्त तो क्यूँ आए अयादत के लिए
शब-ए-विसाल लगाया जो उन को सीने से
हो तर्क किसी से न मुलाक़ात किसी की
ख़ुद-बख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है
दिल पर लगा रही है वो नीची निगाह चोट
हाए अब कौन लगी दिल की बुझाने आए
अजब ज़माने की गर्दिशें हैं ख़ुदा ही बस याद आ रहा है
यही मसअला है जो ज़ाहिदो तो मुझे कुछ इस में कलाम है
न आ जाए किसी पर दिल किसी का
काफ़िर-ए-इश्क़ को क्या दैर-ओ-हरम से मतलब