बोसा-ए-रुख़्सार पर तकरार रहने दीजिए
लीजिए या दीजिए इंकार रहने दीजिए
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गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
इधर होते होते उधर होते होते
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
परी थी कोई छलावा थी या जवानी थी
हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी
वस्ल में आपस की हुज्जत और है
दिल में हैं वस्ल के अरमान बहुत
काफ़िर-ए-इश्क़ को क्या दैर-ओ-हरम से मतलब
जो काबे से निकले जगह दैर में की
जब तक कि तबीअ'त से तबीअत नहीं मिलती
किसी को देख कर बे-ख़ुद दिल-ए-काम हो जाना
पी कर दो घूँट देख ज़ाहिद