आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
मजनूँ पे क्या गुज़र गई सहरा गवाह है
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मुसीबतें तो उठा कर बड़ी बड़ी भूले
याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
जो दीवानों ने पैमाइश की है मैदान-ए-क़यामत की
ख़ुद-ब-ख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है
यही मसअला है जो ज़ाहिदो तो मुझे कुछ इस में कलाम है
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
लुट गया वो तिरे कूचे में धरा जिस ने क़दम
आप ही से न जब रहा मतलब
जब मिला कोई हसीं जान पर आफ़त आई
क़ासिद ख़िलाफ़-ए-ख़त कहीं तेरा बयाँ न हो