याद आईं उस को देख के अपनी मुसीबतें
रोए हम आज ख़ूब लिपट कर रक़ीब से
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इस को समझो न ख़त्त-ए-नफ़्स 'हफ़ीज़'
दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
सदमे जो कुछ हों दिल पे सहिए
उस को आज़ादी न मिलने का हमें मक़्दूर है
यूँ उठा दे हमारे जी से ग़रज़
मोहब्बत क्या बढ़ी है वहम बाहम बढ़ते जाते हैं
अख़ीर वक़्त है किस मुँह से जाऊँ मस्जिद को
थे चोर मय-कदे के मस्जिद के रहने वाले
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
दिल में हैं वस्ल के अरमान बहुत
हो तर्क किसी से न मुलाक़ात किसी की
यूँ तो हसीन अक्सर होते हैं शान वाले