ज़ाहिद को रट लगी है शराब-ए-तुहूर की
आया है मय-कदे में तो सूझी है दूर की
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बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मिरा
पहुँचे उस को सलाम मेरा
तंदुरुस्ती से तो बेहतर थी मिरी बीमारी
जब न था ज़ब्त तो क्यूँ आए अयादत के लिए
पत्थर से न मारो मुझे दीवाना समझ कर
कोई जहाँ में न यारब हो मुब्तला-ए-फ़िराक़
मिरे ऐबों की इस्लाहें हुआ कीं बहस-ए-दुश्मन से
परी थी कोई छलावा थी या जवानी थी
ख़ुद-ब-ख़ुद आँख बदल कर ये सवाल अच्छा है
जब मिला कोई हसीं जान पर आफ़त आई
हाए अब कौन लगी दिल की बुझाने आए
उन की ये ज़िद कि मिरे घर में न आए कोई