बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मिरा
चले आओ इक दिन टहलते हुए
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जब तक कि तबीअ'त से तबीअत नहीं मिलती
शब-ए-वस्ल है बहस हुज्जत अबस
गया जो हाथ से वो वक़्त फिर नहीं आता
अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
पी लो दो घूँट कि साक़ी की रहे बात 'हफ़ीज़'
हम को दिखा दिखा के ग़ैरों के इत्र मलना
मुसीबतें तो उठा कर बड़ी बड़ी भूले
दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
सच है इस एक पर्दे में छुपते हैं लाख ऐब
क़सम निबाह की खाई थी उम्र भर के लिए
कहा ये किस ने कि वादे का ए'तिबार न था
हाए अब कौन लगी दिल की बुझाने आए