क़सम निबाह की खाई थी उम्र भर के लिए
अभी से आँख चुराते हो इक नज़र के लिए
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क़ैद में इतना ज़माना हो गया
हम को दिखा दिखा के ग़ैरों के इत्र मलना
आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिए
शब-ए-विसाल लगाया जो उन को सीने से
दिल में हैं वस्ल के अरमान बहुत
आप ही से न जब रहा मतलब
'हफ़ीज़' वस्ल में कुछ हिज्र का ख़याल न था
सुब्ह को आए हो निकले शाम के
कभी मस्जिद में जो वाइज़ का बयाँ सुनता हूँ
याद है पहले-पहल की वो मुलाक़ात की बात
अख़ीर वक़्त है किस मुँह से जाऊँ मस्जिद को
मिरे ऐबों की इस्लाहें हुआ कीं बहस-ए-दुश्मन से