मर्द-ए-दरवेश हूँ तकिया है तवक्कुल मेरा
ख़र्च हर रोज़ है याँ आमद-ए-बालाई का
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दौलत-ए-हुस्न की भी है क्या लूट
कोई अच्छा नहीं होता है बरी चालों से
ईद-ए-नौ-रोज़ दिल अपना भी कभी ख़ुश करते
आरिफ़ है वो जो हुस्न का जूया जहाँ में है
मय-कदे में नश्शा की ऐनक दिखाती है मुझे
उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार लिए फिरती है
फ़र्त-ए-शौक़ उस बुत के कूचे में लगा ले जाएगा
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा