दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा
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Rahat Indori
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Parveen Shakir
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हवा-ए-दौर-ए-मय-ए-ख़ुश-गवार राह में है
ठीक आई तन पे अपने क़बा-ए-बरहनगी
पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
बला-ए-जाँ मुझे हर एक ख़ुश-जमाल हुआ
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
शोहरा-ए-आफ़ाक़ मुझ सा कौन सा दीवाना है
तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती
इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
पयाम-बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत