दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों
सारे निफ़ाक़ गब्र ओ मुसलमाँ से दूर हों
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आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
न जब तक कोई हम-प्याला हो मैं मय नहीं पीता
आसार-ए-इश्क़ आँखों से होने लगे अयाँ
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
कोई इश्क़ में मुझ से अफ़्ज़ूँ न निकला
दुनिया ओ आख़िरत में तलबगार हैं तिरे
बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ
कूचा-ए-दिलबर में मैं बुलबुल चमन में मस्त है
क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर
है जब से दस्त-ए-यार में साग़र शराब का
काम हिम्मत से जवाँ मर्द अगर लेता है
मगर उस को फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है