किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
कोई ख़रीद के टूटा पियाला क्या करता
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तेरी जो याद ऐ दिल-ख़्वाह भूला
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बुलबुल को ख़ार ख़ार-ए-दबिस्ताँ है इन दिनों
आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े
कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं
कौन से दिल में मोहब्बत नहीं जानी तेरी
वही पस्ती ओ बुलंदी है ज़मीं की आतिश
मसनद-ए-शाही की हसरत हम फ़क़ीरों को नहीं
क़ुदरत-ए-हक़ है सबाहत से तमाशा है वो रुख़
तिरे अबरू-ए-पेवस्ता का आलम में फ़साना है
ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता