कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं
दिल मिरा घबरा के क्या जाने किधर जाता रहा
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जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को
ब'अद फ़रहाद के फिर कोह-कनी मैं ने की
मय-कदे में नश्शा की ऐनक दिखाती है मुझे
ज़ियारत होगी काबे की यही ताबीर है इस की
किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का
मैं वो ग़म-दोस्त हूँ जब कोई ताज़ा ग़म हुआ पैदा
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
काट कर पर मुतमइन सय्याद बे-परवा न हो
आसमान और ज़मीं का है तफ़ावुत हर-चंद
कौन से दिन हाथ में आया मिरे दामान-ए-यार
इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा